हम शहरी हो गये / हरि नारायण सिंह 'हरि'
हम शहरी हो गये कि छूटा प्यारा अपना गांव।
जड़ से हम तो उखड़ गये ही, फिसले अपने पांव।
नहीं गांव की महक यहाँ है, ना घर का अपनापन,
अपने मन जो आये करते, कहाँ बड़ों का शासन।
घर के आगे नहीं जुटौरा, ना बरगद की छांव।
हम शहरी हो गये कि छूटा प्यारा अपना गांव।
खेती नहीं पथारी अपनी, शिफ्ट-शिफ्ट का चाकर,
सच कहता हूँ, सब कुछ बदला, मीत, शहर में आकर।
बना मशीनी जीवन अपना, बचा न कुछ भी चाव!
हम शहरी हो गये कि छूटा प्यारा अपना गांव।
बाबा-बाबू-भइया छूटे, छूट गयी निज भाषा,
भौतिकता का ताना-बाना, नभचुंबी अभिलाषा।
खुद की कुछ पहचान बची ना, मिले न वैसे भाव!
हम शहरी हो गये कि छूटा प्यारा अपना गांव।
डंका बजता बीस कोस तक मेरे दादा जी का,
मुझको यहाँ न कोई जाने, बगल मुहल्ले भी का।
गुमनामी में जीवन बीते, डगमग-डगमग नाव!
हम शहरी हो गये कि छूटा प्यारा अपना गांव।
भीड़ बहुत है यहाँ, लोग का तांता लगा हुआ है,
सब अपने में मगन-मस्त हैं, मन बिगड़ा-बिगड़ा है।
सब केवल खुद की ही सोचे, केवल अपने दाव।
हम शहरी हो गये कि छूटा प्यारा अपना गांव।