भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम हाथों पर हाथ धरे हैं / शिवम खेरवार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम हाथों पर हाथ धरे हैं,
तन्हाई से बात करे हैं,
सोच रहे हैं हम; जाने की,
उसकी मजबूरी क्या होगी।

होगा कोई बाग अनोखा, जहाँ मिलीं उसको सब खुशियाँ,
शीतल, मीठे नीर सहित, पाखर की ठंडी-ठंडी छइयाँ,
अब जब वह है नहीं हमारा, फिर हसरत पूरी क्या होगी?
सोच रहे हैं हम; जाने की, उसकी मज़बूरी क्या होगी।

वह दुनिया के किस कोने में, रहता है ओ ईश! बता दे,
खोज-खोजकर हार चुका हूँ, मोहन! उसका मुझे पता दे,
मेरे उस तक जा सकने की, ठीक-ठीक दूरी क्या होगी।
सोच रहे हैं हम; जाने की, उसकी मज़बूरी क्या होगी।