भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमको तुमको फेर समय का / फ़िराक़ गोरखपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमको तुमको फेर समय का ले आई ये हयात कहाँ ?
हम भी वही हैं तुम भी वही हो लेकिन अब वो बात कहाँ ?

कितनी उठती हुई जवानी खिलने से पहले मुरझाएँ.
मन उदास तन सूखे-सूखे इन रुखों में पात कहाँ ?

ये संयोग-वियोग की दुनिया कल हमको बिछुड़ा देगी.
देख लूँ तुमको आँख भर के आएगी अब ये रात कहाँ ?

मोती के दो थाल सजाए आज हमारी आँखों ने.
तुम जाने किस देस सिधारे भेंजें ये सौगात कहाँ ?

तेरा देखना सोच रहा हूँ दिल पर खा के गहरे घाव.
इतने दिनों छुपा रक्खी थी आँखों ने ये घात कहाँ ?

ऐ दिल कैसे चोट लगी जो आँखों से तारे टूटे.
कहाँ टपाटप गिरते आँसू और मर्द की जात कहाँ ?

यूँ तो बाजी जीत चुका था एक चाल थी चलने की.
उफ़ वो अचानक राह पड़ जाना इश्क़ ने खाई मात कहाँ ?

झिलमिल-झिलमिल तारों ने भी पायल की झंकार सुनी थी.
चली गई कल छमछम करती पिया मिलन की रात कहाँ ?