भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमर अड़जल मात्र किछु शब्द / दीप नारायण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम कहिओ जिकिर नहि केलियैक
अपन सेलरी केँ
ने कहिओ ई कहलियैक जेँ
कतेक कमाइ भ' जाइत अछि
कविता सँ आ कि
किताब सँ आबि जाइत अछि कतेक रॉययल्टी

अकसरहाँ ओकरा बातमे
आबि जाइत अछि
आमदनी आ खर्चा
नहि चाहितो
बेर-बेर बहार भ' जाइत छैक
ओकरा मुँह सँ सेलरी

समाजमे आब
पद, पाइ आ पहिरन-ओढ़न देखि क'
करैत छैक ककरो सँ बात कियो
मित्रता तय करबा सँ पहिने
पुछि लेल जाइछ मकानक एसक्याइर फिट
आ फ्लोरक संख्या

कहैत छथि तारानंद वियोगी -
'जे प्रभु, धन दिय' त'
ज्ञान ल' क' नहि दिय'!

धन दिय' त' अइ होश संग दिय'
जे धन हमरा हुअए
हम धन केँ नहि भ' जाइयै'

नहि अछि हमरा लग किछु
किरायाक एगोट कोठली आ किछु शब्दक आलाबे

लोक अड़जलक अछि धन
हमर अड़जल मात्र किछु शब्द अछि
जाहि सँ बुनैत रहैत छी कविता
कविता जीवित रखैत अछि हमरा
अपन सिनेह मे
अपन भाषा मे
लोकतंत्र मे
प्रतिवाद मे सेहो

हम अनुभव क' लैत छीयैक
ताबा महक रोटीक सिद्धैक ताप
अकानि लैत छीयैक
घासक मुड़ी पर खसैत ओसक बुन्नी केर ध्वनि
पढ़ि लैत छीयैक
लोकक मुह परहक डरीर
जानि लैत छीयैक मनसा

कविता हिम्मति दैत अछि हमरा
हम जीबैत रहब कविता
लिखैत रहब कविता
हे प्रभु, हमरा धन दिय'
ताहि सँ पहिले कविता दिय' हमरा
लोक सँ बतिआइत काल धन, पद, पाइ नहि
कविता बहराइक हमरा मुँह सँ।