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हमला-आवर कोई अक़ब से है / 'साक़ी' फ़ारुक़ी
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हमला-आवर कोई अक़ब से है
ये तआक़ुब में कौन कब से है
शहर में ख़्वाब का रिवाज नहीं
नींद की साज़-बाज़ सब से है
लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं
वक़्त अकेला इसी सबब से है
हम-ख़यालों के मश्रबों का ज़वाल
ख़ौफ़ से जब्र से तलब से है
शोला-बारों के ख़ान-दान से हूँ
रूह में रौशनी नसब से है