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हमारा रक्त / अज्ञेय
Kavita Kosh से
यह इधर बहा मेरे भाई का रक्त
वह उधर रहा उतना ही लाल
तुम्हारी एक बहिन का रक्त!
बह गया, मिलीं दोनों धारा
जा कर मिट्टी में हुईं एक
पर धरा न चेती मिट्टी जागी नहीं
न अंकुर उस में फूटा।
यह दूषित दान नहीं लेती-
क्योंकि घृणा के तीखे विष से आज हो गया है
अशक्त निस्तेज और निर्वीर्य हमारा रक्त!
काशी, 5 नवम्बर, 1947