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हमारी आग / दिलीप शाक्य
Kavita Kosh से
ये किसके जासूस हैं
छिपकर बैठ गए हैं
हमारे बैठने खाने और सोने के कमरों में
कि हमारी नींद तक से चली गई है
हमारे दालानों बरामदों और खलिहानों की धूप
हमारे पैरों से
खिसकती जा रही है हमारी धरती
हमारी हवा हमारा आकाश हमारा पानी
हमसे हो रहा है दूर लगातार
हमसे छीनकर हमारी आग
किसने रख ली है अपने रेफ़्रीजिरेटेड गोदामों में
कि हमारी आत्मा तक में भर गई है सीलन
अन्धेरे में डूब रही है विरोध में तनी माँसपेशियों की चमक
उठो शिराओं में उबलने दो ख़ून का मिज़ाज
उठो खुलने दो तालू से चिपकी हुई ज़बान
उठो कि इस बार हम सब मिलकर
छुड़ा लाएँ हमारी आग
कि हमारी दुनिया को बहुत तेज़ ज़रूरत है
रौशनी की