हमारे गाँव की विधवाएँ / अनुपम सिंह
उधध रंगों में लिपटी औरतें
हमारे गाँव की विधवाएँ हैं।
हमारी दादियाँ चाचियाँ माएँ हैं
जवान भाभियाँ, बहनें हैं
जो उजाड़ ओढ़ अन्धेरे में
सिसकियाँ भर रही हैं।
ज्ञान की खोज में जब पोते-पोतियाँ
कहीं दूर जा रहे होते हैं
तो विधवा दादियाँ दूर से ही
अपना प्रेमाशीष हवा में छोड़ देती हैं।
विधवाएँ टूटी हुई बाल्टियाँ हैं
जिसमें सगुन का जल नहीं भरा जाता।
विधवा हुई माएँ बेटियों के ब्याह में
अपने आंचल से उनका सिर नहीं ढकतीं
बस हारी आँखों से उन्हें निहारती रहती हैं।
मन ही मन क्षमा माँग लेती हैं माएँ
विदा होती बेटियों से
और न जाने किन जंगलों में खो जाती हैं।
शुभ कार्यों से बेदख़ल विधवाएँ
मंगलाचार को रुदन के राग में गाती हैं।
हमारे गाँव की विधवाएँ और बिल्लियाँ एक जैसी हैं
बहुवर्णी स्त्रियाँ कब बनीं विधवाएँ
बिल्लियों में किसने भरे ये रंग
न विधवाएँ जान पाती हैं
न ही बिल्लियाँ।