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हमेशा / संज्ञा सिंह
Kavita Kosh से
विश्वास का स्तम्भ
हिला है जहाँ कहीं
अचरज से फ़ैल गई है सबकी आँखें
नंगी सच्चाई के पक्ष में
जब-जब खुली है जबान
सनसनी मच गई है पूरे के पूरे माहौल में
स्थिर पानी में
फूटे है जब-जब बुलबुले
भंग हो गई है शान्ति पूरे तालाब की
मनचाही राह पर
चले हैं पाँव जब-जब
शंका के भूत पैदा होते रहे है हमेशा
रचनाकाल : 1994, जौनपुर