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हमेशा चाहतों के सिलसिले क्यूँ छूट जाते हैं / हरकीरत हीर
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हमेशा चाहतों के सिलसिले क्यूँ छूट जाते हैं
मुहब्बत से भरे मासूम दिल ही टूट जाते हैं
नज़र जो मुन्तज़िर होती कभी हम भी लौट भी आते
घरौंदे ये उम्मीदों के, भला क्यूँ टूट जाते हैं?
शज़र क्यों सूख वो जाते लगाते जब कभी हम तो
जहाँ करते मुहब्बत हम शहर क्यों छूट जाते हैं
जफ़ा देखी, वफ़ा देखी, जहां की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में चमन वो लूट जाते हैं
छुडाना था उन्हें दामन, न मुड़ पीछे कभी देखा
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं
सदा जो मुस्कुराकर के, कभी देते सनम मुझको
बहारें लौट आतीं फिर गिले भी छूट जाते हैं
घरौंदे साहिलों पर 'हीर' तुम बेशक बना लेना
बने जो रेत से हों घर, वो बिखर कर टूट जाते हैं