हर चेहरा जलहीन नदी-सा / प्रेम शर्मा
इस रंगीन
शहर में मुझको
सब कुछ बेगाना लगता है
आकर्षक
चेहरे हैं लेकिन
हर चेहरा जलहीन नदी सा
दरवाज़ों तक
आते-आते
यहाँ रौशनी मार जाती है
यूँ ही अन्धे
गलियारे में
सारी उम्र गुज़र जाती है
थके-थके
बोझिल माथों पर
अंकित अस्त सूर्य की छाया
कैसे गीत
सुबह के गाऊँ
गायक हूँ मैं अन्ध सदी का ।
हरियाली का
ख़ून हो गया
आग लगी है चन्दबन में
भटक रहीं
नंगी आवाज़ें
कोलाहल परिवर्तन में
देख रहा हूँ
खुली हथेली
आने वाले वर्तमान की
कटी भुजाएँ
टूटे पहिए
रेंग रही विकलाँग सभ्यता
अन्तरिक्ष
यात्री-सा कोई
भेद रहा अज्ञात दिशाएँ
भीतर चुभती
किरण नुकीली
सिमट रहीं फैली सीमाएँ
धँसती हुई
परिस्थितियों से
ऊपर आना सहज नहीं है
झुठलाए
आदिम सत्यों को
देनी होगी अग्निपरीक्षा ।
(ज्ञानोदय, फ़रवरी 1964)