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हर बार जैसा ही / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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क्या सही, क्या गलत
क्या अच्छा, क्या बुरा
मुश्किल है बड़ा समझना
धुंध-सी काँपती है
संशय में
कौन जाने?
क्या लिखा, क्या मिटा?
ज्वार लहरों का
आता है, जाता है
छोड़ जाता है कुछ
बहा ले जाता है कुछ
कौन जाने?
क्या गया, क्या आया?
क्या खोया, क्या पाया?
शून्य से ज्यादा अंत में
किसी ने नहीं पाया
असंभव हो जाता है तब
इस समझ के साथ लौटना
फिर शुरू से जीना।