हर बेरी फंस जाही / संजीव कुमार 'मुकेश'
गोल-मोल बादा हे,
पनसुखल इरादा हे,
नयका-पुरनका साथ,
देख के हदस जा ही।
हर बेरी फंस जाही।
परसुं हल साथ,
आज दुश्मन पुराना हे।
भोरे भोर कल देखलू
नयका बहाना हे
कि होतई हमनीन के
सोच! के हदस जाही
हर बेरी फंस जाही।
नेता की अफसर आऊ,
बाबा घर जाना हे।
मांस, मदिरा, माया, मादा के
दिवाना हे।
देशवा हल पहले कि,
सोच के सिसक जाही।
हर बेरी फंस जाही।
जाड़ा के बोरसी नयऽ,
गरमी में ठंढा।
माँगे ले जाहूँ त,
मार देहऽ डंडा.
कि करूँ निम्मर ही,
चुप-चाप सरक जाही।
हर बेरी फंस जाही।
नुन रोटी खाही हम,
दिन भर कमा ही हम,
जे दिन दिहाड़ी नय
भुख्खल टटा ही हम
तोहरा के देखेले
बरसों तरस जा ही।
हर बेरी फंस जाही।
करऽ पड़तो काम,
नय अब चलतो बहाना,
तोहर इ चाल देखऽ,
होलो पुराना।
तोर सब के चक्कर में,
बचबो बहक जा ही।
हर बेरी फंस जाही।