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हर संग में शरार है तेरे ज़हूर का / सौदा

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हर संग में शरार है तेरे ज़हूर का
मूसा नहीं जो सैर करूँ कोहे-तूर का

पढ़िए दरुद हुस्ने-सबीहो-मलीह देख
जल्वा हरेक पर है मुहम्म्द के नूर का

तोड़ूँ ये आइना कि हमआग़ोशे-अक़्स है
होवे न मुझको पास जो तेरे हुज़ूर का

बेकस कोई मरे तो जले उसपे दिल मिरा
गोया है ये चिराग़ ग़रीबाँ के गोर का

हम तो क़फ़स में आन के ख़ामोश हो रहे
ऐ हमसफ़ीर, फ़ायदा नाहक़ के शोर का

'सौदा' कभी न मानियो वाइज़ की गुफ़्तगू
'आवाज़-ए-दुहल है ख़ुश-आइंद दूर का' 1

साक़ी से कह कि है शबे-मेहताब जल्वागर
दे बिस्मापोश होके तो साग़र बिल्लौर का

शब्दार्थ:
ज़हूर: प्रकटन, दरुद: जाप, सबीहो-मलीह: साँवला-सलोना, गोर: क़ब्र, बिस्मापोश होके: पारदर्शी कपड़े पहनकर
1. दूर के ढोल सुहाने होते हैं


नोट: ग़ज़ल के अंतिम से दूसरे शे'र में सुखनवर का नाम है लेकिन वह मक़ता नहीं, जैसा कि नियम है कि शाइर का नाम मक़ते में होता है।