हर स्वर लगता है / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हर स्वर लगता है मुझको परिचित-सा,
लगती है हर राग मुझे पहचानी-सी।
पता नहीं क्या बात कि जो भी मिला मुझे
लगा कि देखा उसे कभी पहले भी है;
और हुई जब बातचीत मेरी उससे
लगा कि बात हुई उससे पहले भीहै।
हर घर लगता है मुझको परिचित-सा,
हर सूरत लगती मुझको पहचानी-सी॥1॥
साथ नहीं मेरे कोई जीवन-पथ पर
कभी आज तक लगा नहीं ऐसा मुझको;
कदम कदम पर अनायास ही मिले स्वयं
मेरे मनचाहे संगी-साथी मुझको।
हर राही लगता है मुझको परिचित-सा,
लगती है हर राह मुझे पहचानी-सी॥2॥
जहाँ कहीं कोई पूजाघर मिलता है
झुक जाता है मेरा मस्तक स्वयं वहाँ;
पता नहीं क्यों नाम धरम का लेकर यह
टुकड़ों-टुकड़ों में दुनिया है बटी यहाँ?
हर मन्दिर लगता मुझको तो परिचित-सा,
हर मूरत लगती उसकी पहचानी-सी॥3॥
जहाँ-जहाँ, जब-जब बीणा के तारों की
दर्द-भरी झंकार सुनाई देती है;
लगता है मेरे अंतर की पीड़ा ही
स्वर में हो साकार दिखायी देती है।
हर आँसू लगता है मेरी आँखों का,
हर घटना मेरी ही एक कहानी-सी॥4॥
22.6.61