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हरापन / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
Kavita Kosh से
पत्तियों में अभी भी
बचा हुआ है कुछ हरापन
हरे रंग में भी
बचा हुआ है कुछ हरापन
समुद्र के पानी में
बचा हुआ है कुछ हरापन
काई में भी
बचा हुआ है कुछ हरापन
लेकिन मन पतझड़ हो गया है
कोख हरी कहाँ होती है?
आँखों के हरेपन को
लील गई है अजनबियत
अब किसी को देखकर कहाँ लहलहाता है
पड़ जाये कोई गले
तो मुँह छिपाता है
कहाँ से लाये हरापन
कि पीली पड़ी ये धरा हो जाये हरी
कि हरी हो जाये ये कोख
कि संभव हो जीवन
कि हरा हो ये मन।