हरिगीता / अध्याय १८ / दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'
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अर्जुन बोले:
संन्यास एवं त्याग-तत्त्व, पृथक महाबाहो, कहो॥
इच्छा मुझे है हृषीकेश, समस्त इनका ज्ञान हो॥१॥
श्रीभगवान बोले:
सब काम्य-कर्म का न्यास ही संन्यास ज्ञानी मानते॥
सब कर्मफल के त्याग ही को त्याग विज्ञ बखानते॥२॥
हैं दोषवत् सब कर्म कहते त्याज्य कुछ विद्वान् हैं॥
तप दान यज्ञ न त्यागिये कुछ दे रहे यह ज्ञान हैं॥३॥
हे पार्थ, सुन जो ठीक मेरा त्याग हेतु विचार है॥
हे पुरुषव्याघ्र, कहा गया यह त्याग तीन प्रकार है॥४॥
मख दान तप ये कर्म करने योग्य, त्याज्य न हैं कभी॥
मख दान तप विद्वान् को भी शुद्ध करते हैं सभी॥५॥
ये कर्म भी आसक्ति बिन हो, त्यागकर फल नित्य ही॥
करने उचित हैं पार्थ, मेरा श्रेष्ठ निश्चित मत यही॥६॥
निज नियत कर्म न त्यागने के योग्य होते हैं कभी॥
यदि मोह से हो त्याग तो, वह त्याग तामस है सभी॥७॥
दुख जान काया-क्लेश भय से, कर्म यदि त्यागे कहीं॥
वह राजसी है त्याग, उसका फल कभी मिलता नहीं॥८॥
फल-संग तज जो कर्म नियमित कर्म अपना मान है॥
माना गया वह त्याग शुभ, सात्त्विक सदैव महान है॥९॥
नहिं द्वेष अकुशल कर्म से, जो कुशल में नहिं लीन है॥
संशय-रहित त्यागी वही है सत्त्वनिष्ठ प्रवीन है॥१८.१०॥
संभव नहीं है देहधारी त्याग दे सब कर्म ही॥
फल कर्म के जो त्यागता, त्यागी कहा जाता वही॥१८.११॥
पाते सकामी देह तज, फल शुभ अशुभ मिश्रित सभी॥
त्यागी पुरुष को पर न होता है, त्रिविध फल ये कभी॥१८.१२॥
हैं पाँच कारण जान लो सब कर्म होने के लिए॥
सुन मैं सुनाता सांख्य के सिद्धान्त में जो भी दिए॥१८.१३॥
आधार कर्ता और सब साधन पृथक् विस्तार से॥
चेष्टा विविध विध, दैव, ये हैं हेतु पाँच प्रकार के॥१८.१४॥
तन मन वचन से जन सभी जो कर्म जग में कर रहे॥
हों ठीक या विपरीत उनके पाँच ये कारण कहे॥१८.१५॥
जो मूढ़ अपने आपको ही किन्तु कर्ता मानता॥
उसकी नहीं है शुद्ध बुद्धि, न ठीक वह कुछ जानता॥१८.१६॥
जो अहंकृत-भाव बिन, नहिं लिप्त जिसकी बुद्धि भी॥
नहिं मारता वह मारकर भी, है न बन्धन में कभी॥१८.१७॥
नित ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय करते कर्म मे हं ऐ प्रेरणा॥
है कर्मसंग्रह करण, कर्ता, कर्म तीनों से बना॥१८.१८॥
सुन ज्ञान एवं कर्म, कर्ता भेद गुण अनुसार हैं॥
जैसे कहे हैं सांख्य में, वे सर्व तीन प्रकार हैं॥१८.१९॥
सब भिन्न भूतों में अनश्वर एक भाव अभिन्न ही॥
जिस ज्ञान से जन देखता है, ज्ञान सात्त्विक है वही॥२०॥
जिस ज्ञान से सब प्राणियों में भिन्नता का भान है॥
सबमें अनेकों भाव दिखते, राजसी वह ज्ञान है॥२१॥
जो एक ही लघुकार्य में आसक्त पूर्ण-समान है॥
निःसार युक्ति-विहीन है वह तुच्छ तामस ज्ञान है॥२२॥
फल-आश-त्यागी नित्य नियमित कर्म जो भी कर रहा॥
बिन राग द्वेष, असंग हो, वह कर्म सात्त्विक है कहा॥२३॥
आशा लिए फल की अहंकृत-बुद्धि से जो काम है॥
अति ही परिश्रम से किया, राजस उसी का नाम है॥२४॥
परिणाम, पौरुष, हानि, हिंसा का न जिसमें ध्यान है॥
वह तामसी है कर्म जिसके मूल में अज्ञान है॥२५॥
बिन अहंकार, असंग, धीरजवान्, उत्साही महा॥
अविकार सिद्धि असिद्धि में सात्त्विक वही कर्ता कहा॥२६॥
हिंसक, विषय-भय, लोभ-हर्ष-विषाद-युक्त मलीन है॥
फल कामना में लीन, कर्ता राजसी वह दीन है॥२७॥
चंचल, घमण्डी, शठ, विषादी, दीर्घसूत्री, आलसी॥
शिक्षा-रहित, पर-हानि-कर, कर्ता कहा है तामसी॥२८॥
होते त्रिविध ही हे धनंजय, बुद्धि धृति के भेद भी॥
सुन भिन्न-भिन्न समस्त गुण-अनुसार कहता हूँ अभी॥२९॥
जाने प्रवृत्ति निवृत्ति बन्धन मोक्ष कार्य अकार्य भी॥
हे पार्थ, सात्त्विक बुद्धि है जो भय अभय जाने सभी॥३०॥
जिस बुद्धि से निर्णय न कार्य अकार्य बीच यथार्थ है॥
जाने न धर्म अधर्म को वह राजसी मति पार्थ, है॥३१॥
तम-व्याप्त हो जो बुद्धि, धर्म अधर्म ही को मानती॥
वह तामसी, जो नित्य अर्जु न, अर्थ उलटे जानती॥३२॥
जब अचल धृति से क्रिया, मन प्राण इन्द्रिय की सभी॥
धारण करे नित योग से, धृति शुद्ध सात्त्विक है तभी॥३३॥
आसक्ति से फल-कामना-प्रिय धर्म अर्थ व काम है॥
धारण किये जिससे उसी का राजसी धृति नाम है॥३४॥
तामस वही धृति पार्थ, जिससे स्वप्न, भय, उन्माद को॥
तजता नहीं दुर्ब उद्धि मानव, शोक और विषाद को॥३५॥
अब सुन त्रिविध सुख-भेद भी जिसके सदा अभ्यास से॥
सब दुःख का कर अन्त अर्ज उन, जन उसी में जा बसे॥३६॥
आरम्भ में विषवत् सुधा सम किन्तु मधु परिणाम है॥
जो आत्मबुद्धि-प्रसाद-सुख, सात्त्विक उसी का नाम है॥३७॥
राजस वही सुख है कि जो इन्द्रिय-विषय-संयोग से॥
पहिले सुधा सम, अन्त में विष-तुल्य हो फल-भोग से॥३८॥
आरम्भ एवं अन्त में जो मोह जन को दे रहा॥
आलस्य नीन्द प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा॥३९॥
इस भूमि पर आकाश अथवा देवताओं में कहीं॥
हो प्रकृति के इन तीन गुण से मुक्त ऐसा कुछ नहीं॥४०॥
द्विज और क्षत्रिय वैश्य शूद्रों के परंतप, कर्म भी॥
उनके स्वभावज ही गुणों अनुसार बाँटे हैं सभी॥४१॥
शम दम क्षमा तप शुद्धि आस्तिक बुद्धि व विज्ञान भी॥
द्विज के स्वभावज कर्म हैं, तन-मन-सरलता ज्ञान भी॥४२॥
धृति शूरता तेजस्विता रण से न हटना धर्म है॥
चातुर्य स्वामीभाव देना दान क्षत्रिय कर्म है॥४३॥
कृषि धेनु-पालन वाणिज्य, वैश्य का ही कर्म है॥
नित कर्म शूद्रों का स्वभावज लोक-सेवा धर्म है॥४४॥
करता रहे जो कर्म निज-निज सिद्धि पाता है वही॥
निज-कर्म-रत नर सिद्धि किस भाँति पाता नित्य ही॥४५॥
जिससे प्रवृत्ति समस्त जीवों की तथा जग व्याप्त है॥
निज कर्म से, नर पूज उसको सिद्धि करता प्राप्त है॥४६॥
निज धर्म निर्ग उण श्रेष्ठ है, सुन्दर सुलभ पर-धर्म से॥
होता न पाप स्वभाव के अनुसार करने कर्म से॥४७॥
निज नियत कर्म सदोष हों, तो भी उचित नहिं त्याग है॥
सब कर्म दोषों से घिरे, जैसे ए धुएँ से आग है॥४८॥
वश में किये मन, अनासक्त, न कामना कुछ व्याप्त हो॥
नैष्कम्र्य-सिद्धि महान तब, संन्यास द्वारा प्राप्त हो॥४९॥
जिस भाँति पाकर सिद्धि होती ब्रह्म-प्राप्ति सदैव ही॥
संक्षेप में सुन ज्ञान की अर्ज उन, परा-निष्ठा वही॥५०॥
कर आत्म संयम धैर्य से अतिशुद्ध मति में लीन हो॥
सब त्याग शब्दादिक विषय, नित राग-द्वेष-विहीन हो॥५१॥
एकान्तसेबी अल्प-भोजी, तन मन वचन को वश किए॥
हो ध्यान-युक्त सदैव ही, वैराग्य का आश्रय लिए॥५२॥
बल अहंकार घमण्ड संग्रह क्रोध काम विमुक्त हो॥
ममता-रहित नर शान्त, ब्रह्म-विहार के उपयुक्त हो॥५३॥
जो ब्रह्मभूत प्रसन्न-मन है, चाह-चिन्ता-हीन है॥
सम भाव सबमें साध, होता भक्ति में लवलीन है॥५४॥
मैं कौन कैसा, भक्ति से उसको सभी यह ज्ञान हो॥
मुझमें मिले तत्काल, मेरी जब तत्त्व से पहचान हो॥५५॥
करता रहे सब कर्म भी, मेरा सदा आश्रय धरे॥
मेरी कृपा से प्राप्त वह अव्यय सनातन पद करे॥५६॥
मन से मुझे सारे समर्पित कर्म कर, मत्पर हुआ॥
मुझमें निरंतर चित्त धर, सम-बुद्धि में तत्पर हुआ॥५७॥
रख चित्त मुझमें, मम कृपा से दुःख सब तर जायेगा॥
अभिमान से मेरी न सुनकर, नाश केवल पायेगा॥५८॥
‘मैं नहीं करूँगा युद्ध’ तुम अभिमान से कहते अभी॥
यह व्यर्थ निश्चय है, प्रकृति तुमसे करा लेगी सभी॥५९॥
करना नहीं जो चाहता है, मोह में तल्लीन हो॥
वह सब करेगा स्वभावजन्य कर्म के आधीन हो॥६०॥
ईश्वर हृदय में प्राणियों के बस रहा है नित्य ही॥
सब जीव यन्त्रारूढ़ सा, माया से घुमाता है वही॥६१॥
इस हेतु ले उसकी शरण, सब भाँति से सब ओर से॥
शुभ शान्ति लेगा नित्य-पद, उसकी कृपा की कोर से॥६२॥
तुझसे कहा अतिगुप्त ज्ञान, समस्त यह विस्तार से॥
जिस भाँति जो चाहे वही कर पार्थ, पूर्ण विचार से॥६३॥
अब अन्त में अतिगुप्त हे कौन्तेय, कहता बात हूँ॥
अतिप्रिय मुझे तू, अस्तु हित की बात कहता तात हँ ऊ॥६४॥
रख मन मुझी में, कर यजन, मम भक्त बन, कर वन्दना॥
मुझमें मिलेगा, सत्य प्रण तुझसे, मुझे तू प्रिय घना॥६५॥
तज धर्म सारे एक मेरे ही शरण को प्राप्त हो॥
मैं मुक्त पापों से करूँगा, तू न चिन्ता व्याप्त हो॥६६॥
निन्दा करे मेरी, न सुनना चाहता, बिन भक्ति है॥
उसको न देना ज्ञान यह, जिसमें नहीं तप शक्ति है॥६७॥
यह गुप्त ज्ञान महान भक्तों से कहेगा जो सही॥
मुझमें मिले पा भक्ति मेरी, असंशय, नर वही॥६८॥
उससे अधिक प्रिय कार्य-कर्ता विश्व में मेरा नहीं॥
उससे अधिक मुझको न प्यारा दूसरा होगा कहीं॥६९॥
मेरी तुम्हारी धर्म-चर्चा जो पढ़े गा ध्यान से॥
मैं मानता पूजा मुझे है, ज्ञानयज्ञ विधान से॥७०॥
बिन दोष ढूँढे जो सुनेगा, नित्य श्रद्धायुक्त हो॥
वह पुण्यवानों का परम शुभ लोक लेगा मुक्त हो॥७१॥
अर्जुन, कहो तुमने सुना यह ज्ञान सारा ध्यान से॥
अब भी छूटे हो या नहीं, उस मोहमय अज्ञान से॥७२॥
अर्जुन बोले:
अच्युत, कृपा से आपकी, अब मोह सब जाता रहा॥
संशय रहित हूँ, सुधि आई, करूँगा हरि का कहा॥७३॥
संजय बोले:
इस भाँति यह रोमांचकारी और श्रेष्ठ रहस्य भी॥
श्रीकृष्ण अर्जु न का सुना संवाद है मैंने सभी॥७४॥
साक्षात् योगेश्वर स्वयं श्रीकृष्ण का वर्णन किया॥
यह श्रेष्ठ योग-रहस्य व्यास-प्रसाद से सब सुन लिया॥७५॥
श्रीकृष्ण अर्जु न का निराला पुण्यमय संवाद है॥
हर बार देता हर्ष है, आता मुझे जब याद है॥७६॥
जब याद आता उस अनोखे रूप का विस्तार है॥
होता तभी विस्मय तथा आनन्द बारम्बार है॥७७॥
श्रीकृष्ण योगेश्वर जहाँ, अर्जुन धनुर्धारी जहाँ॥
वैभव, विजय, श्री, नीति सब मत से हमारे हैं वहाँ॥७८॥
अट्ठारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥१८॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्यायः॥