हरिगीता / अध्याय ३ / दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'
अर्जुन ने कहा:
यदि हे जनार्दन! कर्म से तुम बुद्धि कहते श्रेष्ठ हो।
तो फिर भयंकर कर्म में मुझको लगाते क्यों कहो॥१॥
उलझन भरे कह वाक्य, भ्रम- सा डालते भगवान् हो।
वह बात निश्चय कर कहो जिससे मुझे कल्याण हो॥२॥
श्रीभगवान् ने कहा:
पहले कही दो भाँति निष्ठा, ज्ञानियों की ज्ञान से।
फिर योगियों की योग- निष्ठा, कर्मयोग विधान से॥३॥
आरम्भ बिन ही कर्म के निष्कर्म हो जाते नहीं।
सब कर्म ही के त्याग से भी सिद्धि जन पाते नहीं॥४॥
बिन कर्म रह पाता नहीं कोई पुरुष पल भर कभी।
हो प्रकृति- गुण आधीन करने कर्म पड़ते हैं सभी॥५॥
कर्मेंद्रियों को रोक जो मन से विषय- चिन्तन करे।
वह मूढ़ पाखण्डी कहाता दम्भ निज मन में भरे॥६॥
जो रोक मन से इन्द्रियाँ आसक्ति बिन हो नित्य ही।
कर्मेन्द्रियों से कर्म करता श्रेष्ठ जन अर्जुन! वही॥७॥
बिन कर्म से नित श्रेष्ठ नियमित- कर्म करना धर्म है।
बिन कर्म के तन भी न सधता कर नियत जो कर्म है॥८॥
तज यज्ञ के शुभ कर्म, सारे कर्म बन्धन पार्थ! हैं।
अतएव तज आसक्ति सब कर कर्म जो यज्ञार्थ हैं॥९॥
विधि ने प्रजा के साथ पहले यज्ञ को रच के कहा।
पूरे करे यह सब मनोरथ, वृद्धि हो इससे महा॥१०॥
मख से करो तुम तुष्ट सुरगण, वे करें तुमको सदा।
ऐसे परस्पर तुष्ट हो, कल्याण पाओ सर्वदा॥११॥
मख तृप्त हो सुर कामना पूरी करेंगे नित्य ही।
उनका दिया उनको न दे, जो भोगता तस्कर वही॥१२॥
जो यज्ञ में दे भाग खाते पाप से छुट कर तरें।
तन हेतु जो पापी पकाते पाप वे भक्षण करें॥१३॥
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से हैं, अन्न होता वृष्टि से।
यह वृष्टि होती यज्ञ से, जो कर्म की शुभ सृष्टि से॥१४॥
फिर कर्म होते ब्रह्म से हैं, ब्रह्म अक्षर से कहा।
यों यज्ञ में सर्वत्र- व्यापी ब्रह्म नित ही रम रहा॥१५॥
चलता न जो इस भाँति चलते चक्र के अनुसार है।
पापायु इन्द्रियलम्पटी वह व्यर्थ ही भू- भार है॥१६॥
उसको न कोई लाभ है करने न करने से कहीं।
हे पार्थ! प्राणीमात्र से उसको प्रयोजन है नहीं॥१८॥
अतएव तज आसक्ति, कर कर्तव्य कर्म सदैव ही।
यों कर्म जो करता परम पद प्राप्त करता है वही॥१९॥
जनकादि ने भी सिद्धि पाई कर्म ऐसे ही किये।
फिर लोकसंग्रह देख कर भी कर्म करना चाहिये॥२०॥
जो कार्य करता श्रेष्ठ जन करते वही हैं और भी।
उसके प्रमाणित- पंथ पर ही पैर धरते हैं सभी॥२१॥
अप्राप्त मुझको कुछ नहीं, जो प्राप्त करना हो अभी।
त्रैलोक्य में करना न कुछ, पर कर्म करता मैं सभी॥२२॥
आलस्य तजके पार्थ! मैं यदि कर्म में वरतूँ नहीं।
सब भाँति मेरा अनुकरण ही नर करेंगे सब कहीं॥२३॥
यदि छोड़ दूँ मैं कर्म करना, लोक सारा भ्रष्ट हो।
मैं सर्व संकर का बनूँ कर्ता, सभी जग नष्ट हो॥२४॥
ज्यों मूढ़ मानव कर्म करते नित्य कर्मासक्त हो।
यों लोकसंग्रह- हेतु करता कर्म, विज्ञ विरक्त हो॥२५॥
जो आत्मरत रहता निरन्तर, आत्म- तृप्त विशेष है।
संतुष्ट आत्मा में, उसे करना नहीं कुछ शेष है॥१७॥
ज्ञानी न डाले भेद कर्मासक्त की मति में कभी।
वह योग- युत हो कर्म कर, उनसे कराये फिर सभी॥२६॥
होते प्रकृति के ही गुणों से सर्व कर्म विधान से।
मैं कर्म करता, मूढ़- मानव मानता अभिमान से॥२७॥
गुण और कर्म विभाग के सब तत्व जो जन जानता।
होता न वह आसक्त गुण का खेल गुण में मानता॥२८॥
गुण कर्म में आसक्त होते प्रकृतिगुण मोहित सभी।
उन मंद मूढ़ों को करे विचलित न ज्ञानी जन कभी॥२९॥
अध्यात्म- मति से कर्म अर्पण कर मुझे आगे बढ़ो।
फल- आश ममता छोड़कर निश्चिन्त होकर फिर लड़ो॥३०॥
जो दोष- बुद्धि विहीन मानव नित्य श्रद्धायुक्त हैं।
मेरे सुमत अनुसार करके कर्म वे नर मुक्त हैं॥२१॥
जो दोष- दर्शी मूढ़मति मत मानते मेरा नहीं।
वे सर्वज्ञान- विमूढ़ नर नित नष्ट जानों सब कहीं॥३२॥
वर्ते सदा अपनी प्रकृति अनुसार ज्ञान- निधान भी।
निग्रह करेगा क्या, प्रकृति अनुसार हैं प्राणी सभी॥३३॥
अपने विषय में इन्द्रियों को राग भी है द्वेष भी।
ये शत्रु हैं, वश में न इनके चाहिये आना कभी॥३४॥
ऊँचे सुलभ पर- धर्म से निज विगुण धर्म महान् है।
परधर्म भयप्रद, मृत्यु भी निज धर्म में कल्याण है॥३५॥
अर्जुन ने कहा:
भगवन्! कहो करना नहीं नर चाहता जब आप है।
फिर कौन बल से खींच कर उससे कराता पाप है॥३६॥
श्रीभगवान् ने कहा:
पैदा रजोगुण से हुआ यह काम ही यह क्रोध ही।
पेटू महापापी कराता पाप है वैरी यही॥३७॥
ज्यों गर्भ झिल्ली से, धुएँ से आग, शीशा धूल से।
यों काम से रहता ढका है, ज्ञान भी ( आमूल) से॥३८॥
यह काम शत्रु महान्, नित्य अतृप्त अग्नि समान है।
इससे ढका कौन्तेय! सारे ज्ञानियों का ज्ञान है॥३९॥
मन, इन्द्रियों में, बुद्धि में यह वास वैरी नित करे।
इनके सहारे ज्ञान ढक, जीवात्म को मोहित करे॥४०॥
इन्द्रिय- दमन करके करो फिर नाश शत्रु महान् का।
पापी सदा यह नाशकारी ज्ञान का विज्ञान का॥४१॥
हैं श्रेष्ठ इन्द्रिय, इन्द्रियों से पार्थ! मन मानो परे।
मन से परे फिर बुद्धि, आत्मा बुद्धि से जानो परे॥४२॥
यों बुद्धि से आत्मा परे है जान इसके ज्ञान को।
मन वश्य करके जीत दुर्जय काम शत्रु महान् को॥४३॥
तीसरा अध्याय समाप्त हुआ॥३॥