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हरी कोख में / नवल शुक्ल
Kavita Kosh से
अभी बढ़ रहा हूँ
रच रहा हूँ अनन्त विस्तार
सूरज, चांद, धरती अनेक
शून्य से शून्य के बीच
जोड़ रहा हूँ तार
झकझोरता खाली स्थान।
अभी आया नहीं हूँ
अभी ठहरा नहीं हूँ
जहाँ तक जाता है दृष्टि-संसार
वहाँ-वहाँ मेरा आभास
दुष्टों के प्रयत्न सब बेकार
अभी पका नहीं हूँ
उग रहा हूँ
इच्छाओं से भरी
हरी कोख में आ रहा हूँ।