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हर्षित होता देख परम जो / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग बसन्त-ताल कहरवा)

 हर्षित होता देख परम जो जगमें अपना बढ़ता मान।
 घिरा देख जो जन-समूहसे अपनी बढ़ी मानता शान॥
 जो पिछलग्गू प्रशंसकोंकी अपने पीछे सेना जान।
 हर्षोन्मा हु‌आ, दिखलाता निज नुँचेपनका अभिमान॥
 तो वह भूला है, इसमें कुछ भी है नहीं मानकी बात।
 जगके हो-हल्लेका को‌ई मूल्य नहीं, यह जग-विक्यात॥
 पर तथापि यदि मान किसीका बढ़ता, बिना किसी अनुपात।
 मिलता उसे अमित सुख इससे, हो उठता यदि पुलकित-गात ॥
 मिले सदा सुख उसे अपरिमित, बढ़े सदा उसका समान।
 कोटि-कोटि जन मानें उसको, प्रभु ऐसा ही करें विधान॥
 हो असीम आह्लाद देखकर उसका मुख प्रसन्न अलान।
 यही प्रार्थना, प्रभुसे सविनय, पूरी करें सत्य भगवान॥
 काम हमारा पर न जगतसे, बनें लोकमें हम अनजान।
 भूल जायँ सब जगके प्राणी, हम भी भूलें नाम-निशान॥
 हो अनन्य अति शुद्ध प्रेममय पल-पल वर्धनशील अमान।
 मधुर नित्य-सबन्ध उन्हींसे, वे नित पास रहें भगवान॥
 हम-वे दो ही रहें, नित्य नव बढ़ता रहे अतुल उत्साह।
 दोनोंके जीवनमें अविरत प्रेम-सुधाका बहे प्रवाह॥
 एक-दूसरेको ही जानें, अन्य किसीकी रहे न चाह।
 जगके मान-‌अमान, स्तवन-निन्दाकी रहे न कुछ परवाह॥
 यही एक है परम साधना, यही एक है मनकी साध।
 पूरी यह हो रही, रहेगी होती सदा अनन्य अबाध॥
 मिले सदा रहते दोनों हम रय निकुञ्ञ्ज निभृत निर्बाध।
 उछल रहा एकाकी यह प्रेमार्णव अमित, अपार, अगाध॥