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हवा की लड़की / वीरेन्द्र कुमार जैन

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दूर देशिनी हवा आई
पत्तियाँ मरमराईं
नीरवता गहराई
अमराई भूशाई
आमों के भार से
झुक-झुक आई...
कोयल कहीं अगोचर में
कुहू-कुहू कुहुक गई :
काली माटी की अन्तरित प्राणधारा
मेरे रुधिर में लहराई :
आसपास की निस्तब्धता
जाने कब मांसल हो उठ आई :
कोई साँवली पेशलता
चहुँ ओर से
मुझे अनुभूत ममता से आवरित कर गई
जाने कब, सत्ता मेरी
खो गई, खो गई...
आँखें खोल देखा जब,
कहीं था कुछ नहीं...
कहीं भी कोई नहीं...
पार वनान्तर में
पत्तों की अपनी अँगुलियों से मरमराती
दूर-देशिनी हवा की लड़की
बलखाती,खिलखिलाती,
दूर-दूर जा रही...
दूर-दूर जा रही...


रचनाकाल : 17 मई 1963, सीता-सरोवर : राजपन्थ सिद्धक्षेत्र