भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हवा के विरोध में / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
अपने लिए मैं एक अँधेरा
चुन लेता हूँ
फिर किसी नाटक के पात्र की तरह
घर भर की बातें सुन लेता हूँ
नया वेश बदलकर
अब रंगमंच पर नहीं
प्रकाश वृत में घिरा रहकर
किसी संवाद में रेंगने के बजाय
अपने भीतर
एक नेपथ्य चुन लेता हूँ
मैं जानता हूँ
दर्शकों के बीच
मौन से काम अब नहीं चलेगा
फ़िलहाल बेहतर यही है
मैं अपने लिए हवा के विरोध में
सर उठाकर
कोई कर्म चुन लेता हूँ
जीवन की शायद यही परिभाषा हो
वक़्त का शायद यही तकाज़ा हो
तो जीने का यही साँचा
मैं अपने लिए चुन लेता हूँ