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हवा तू कहां है ज़माने हुए / शहरयार
Kavita Kosh से
हवा तू कहां है ज़माने हुए
समंदर के पानी को ठहरे हुए
लहू सबका-सब आंख में आ गया
हरे फूल से जिस्म पीले हुए
जुनूँ का हर इक नक़्श मिटकर रहा
हवस के सभी ख़्वाब पूरे हुए
मनाज़िर बहुत दूर और पास हैं
मगर आईने सारे धुंधले हुए
जहां जाइये रेत का सिलसिला
जिधर देखिये शहर उजड़े हुए
बड़ा शोर था जब समाअत गई
बहुत भीड़ थी जब अकेले हुए
हंसो आसमां बे-उफ़क़ हो गया
अंधेरे घने और गहरे हुए
सुनो अपनी ही बाज़गश्तें सुनो
करो याद अफ़साने भूले हुए
चलो जंगलों की तरफ फिर चलो
बुलाते हैं फिर लोग बिछड़े हुए।