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हाँ... कई बार / अनुपमा त्रिपाठी
Kavita Kosh से
सूर्य से विमुख हो
ठहरे हुए पानी मे
स्वयं से करती हूँ साक्षात्कार
और यूं देखती हूँ अपनी ही परछायीं
तब, घिर जाती हूँ नैराश्य से
और... घिरता है मन
एक घुप्प अंधकार से
कई बार डरता है मन
उस मौन सत्यकार से...!!
सच और झूठ का परिपेक्ष
अच्छे और बुरे का उद्देश्य
गरल और अमिय का सापेक्ष
या तम से ज्योति का अपेक्ष
ठहरे हुए पानी मे
खोजता ही रह जाता
जान नहीं पाता
कभी जान कर भी
गतिहीन...रुका सा
हठी सा...ज़िद छोड़ ही नहीं पाता
बीत जाते हैं
बीतते ही जाते हैं क्षण...इस तरह
स्थिर...अकर्मठ...!!
पर...रहो अगर सूर्य से विमुख
और ठहरे हुए पानी मे
यूँ... देखो अपनी परछायीं
घिरता है... एक घुप्प अंधकार से मन...!!
छिपता है अपनी ही परछाईं में...जब मन
कई बार
हाँ...कई बार...!!