भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाइकु 114 / लक्ष्मीनारायण रंगा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काटतो रैयो
मिनख डावो अंग
खुद ई कट्यो


चावै है बै‘कै
अेकसा बोलो, सोचो
रैवो‘र जीवो


जे धरा नईं
तो नीं रै‘वै मेहत
आसमान रो