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हाय! मैं काहे न बेनु भई / स्वामी सनातनदेव

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राग सोहनी, तीन ताल 30.6.1974

हाय! मैं काहे न बेनु भई।
मोहन के कर में रहती तो होती प्रीति नई॥
बोलि-बोलि पिय रसिक रिझाती उर अनुराग छई।
अधरामृत पी-पी उमँगाती, रति-मति होति नई॥1॥
पिय के प्रान पाय मैं जड़ हूँ होती प्रानमई।
अरस-परस को रस अनुभव करि होती रति विजई॥2॥
कबहुँ खोंसते काँख स्याम तो मति-गति होति नई।
परिरम्भन<ref>आलिंगन</ref> की प्रीति पाय यों रति अति ही उनई॥3॥
कहा करों, पायो प्रमदा<ref>स्त्री</ref> तनु, व्यर्थ हि वयस गई।
कुल की कानि, बानि<ref>वाणी</ref> गुरुजनकी, रति की हानि भई॥4॥

शब्दार्थ
<references/>