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हाय चील / जीवनानंद दास / सुरेश सलिल
Kavita Kosh से
हाय चील, सुनहरे डैनों वाली चील
भरे बादलों वाली इस दोपहरी में
धानसीढ़ी नदी के पास उड़ उड़ कर
तुम और न रोओ !
तुम्हारे रुदन-स्वर में
बेत-फलों जैसी उदासी में डूबी
उसकी उदासी का ध्यान हो आता है :
जो अपने सुरूप के साथ दूर चली गई है
उसे पुकार-पुकार कर कर्मों बुलाती हो ?
कौन भग्न हृदय को कुरेद कर
टीस से छटपटाना चाहेगा!
हाय चील, सुनहरे डैनों वाली चील
भरे बादलों वाली इस दोपहरी में
धानसीढ़ी नदी के पास उड़ उड़ कर
तुम और न रोओ !