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हार / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
मैं किस्सागो नहीं बन पाई
कहानियों के लूपहोल की तुरपाई कैसे करती
जस का तस लिखती रही
सिखाया गया था मुझे
कि ना कहना मेरा हक नहीं है
मेरे हिस्से में दर्द सहने का ही अधिकार है
बाकि सब अनधिकृत
मैंने कंठस्थ किया था पाठ
पर भूल गयी समय की मधुर करवटों में
कि ना-ना करने लगी
फिर सहसा याद आया पुराना पाठ
जब हर ना के बदले हां की चीख बढती गयी
अयाय दर अयाय पन्ने पलटे उल्टी तरफ से
रंज की हर बेल दरख्त की सूखी डाल बनी
सीख लिया हंसना भी
मन की ना और गर्दन की हां के बीच बिठाया तालमेल
सच बोल दिया, मुशकिल था जो बोलना
अब डर है गहराता हुआ
तंज के तीख़े लफ़्ज़ों में
रिश्ता हार जाता है