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हिंदी दोहे-3 / रूपम झा
Kavita Kosh से
चिड़ियों को दाना दिखा, पैर पकड़ता जाल।
लोभ करे संसार में, कुछ ऐसा ही हाल।।
हिंदी मधुर-सुहावनी, मोहक-सुगम जुबान।
हिंदी मधु-रस कर श्रवण, होते हर्षित कान ।।
बिना ठोकरों के कहाँ, मिलती है पहचान।
निशदिन श्रमरत जो रहे, वह पाए सम्मान।।
धन अर्जन की चाह में, फैला कैसा रोग?
शहर-गाँव में बस रहे, खोए खोए लोग।।
जो लिखती हूँ है सही, इसमें है जन-पीर।
तुम ऊँचाई के लिए, पीटो खूब लकीर।।
आँखों में सपने लिए, खोए-खोए लोग।
यह सपने ही हैं दवा, यह सपने ही रोग।।
लड़कर गर मैं छीनती, अपना हक अधिकार।
जीवन भर सहती नहीं, इतने दुख की मार।।
बिके दवा के नाम पर, जहर खरीदें लोग।
वो भोगेंगे जिंदगी, और मौत तू भोग।।
करता रहता रोज वह, अच्छे दिन की बात।
पर हल्कू के सामने, वही पूस की रात।।