भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हिंदी में बोलूँ / ताराप्रकाश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो सोचूँ हिन्दी में सोचूँ
जब बोलूँ हिन्दी में बोलूँ

जन्म मिला हिन्दी के घर में,
हिन्दी दृश्य-अदृश्य दिखाए ।
जैसे माँ अपने बच्चे को,
अग-जग की पहचान कराए।
ओझल-ओझल भीतर का सच,
जब खोलूँ हिन्दी में खोलूँ ।।

निपट मूढ़ हूँ पर हिन्दी ने,
मुझसे नए गीत रचवाए ।
जैसे स्वयं शारदा माता,
गूँगे से गायन करवाए ।
आत्मा के आँसू का अमृत,
जब घोलूँ हिन्दी में घोलूँ ।।

शब्दों की दुनिया में मैंने,
हिन्दी के बल अलख जगाए ।
जैसे दीपशिखा के बिरवे
कोई ठण्डी रात बिताए ।
जो कुछ हूँ हिन्दी से हूँ मैं,
जो हो लूँ हिन्दी से हो लूँ ।।

हिन्दी सहज क्रान्ति की भाषा,
यह विप्लव की अकथ कहानी ।
मैकाले पर भारतेन्दु की
अमर विजय की अमिट निशानी ।
शेष ग़ुलामी के दाग़ों को,
फिर धो लूँ हिन्दी से धो लूँ ।।

हिन्दी के घर फिर-फिर जन्मूँ
जन्मों का क्रम चलता जाए,
हिन्दी का इतना ऋण मुझ पर
सांसों-सांसों चुकता जाए
जब जागूँ हिन्दी में जागूँ
जब सो लूँ हिन्दी में सो लूँ ।।