हिन्दी का सरलीकरण / लाखन सिंह भदौरिया
जो स्वयं सरलता से जन्मी जन जीवन में-
उस पर ही आज कठिनता का दोषारोपण,
जनता-माता का दूध पिया जो बड़ी हुई,
अधरों-अधरों नाचा जिसका शैशव, यौवन।
जिसके मुख से पहले ‘स्वराज्य’ का स्वर फूटा,
जिसकी स्वर लहरी बनी क्रान्ति की चिनगारी,
उद्बुद्ध राष्ट्र को किया प्रभाती गा गाकर-,
जिसने सींची जन जाग्रति की क्यारी क्यारी।
सूरा-मीरा के स्वर में जो गुन गुना रही,
जिसका रस मिसरी घोल रहा मल्हारों में,
जिसमें कजली की तान छेड़ते चरवाहे-
जिसके स्वर चिर परिचित हार, कछारों में।
जिसका सारल्य सहारा बना अभावों में,
तुलसी गाते हैं घर-घर सबके भावों में,
जिसके तुतले स्वर में, कबीर का दर्शन है-
दुख बँटा रहे दोहे रहीम के गाँवों में।
झोपड़ियों में चक्कियाँ सुनो घरघरा रहीं,
जिसके रस-भीगे स्वर अबतक अँधियारे में,
ब्रजभूमि छोड़कर और कहीं फिर जन्म न हो,
रसखान गा रहे अब तक गाँव हमारे में।
जो नगर-नगर में, डगर-डगर में उगी स्वयं,
जिसको जन जीवन की धारा नित सींच रही,
फिर उसे सरलता क्या देगी, शासन-सत्ता,
जो सहज प्रस्फुटन पर ही आग उलीच रही।
हिन्दी हृदयों का नाद, राष्ट्र की भाषा है,
तब उसे सरल करना तो एक तमाशा है,
तुष्टि नीति कुलबुला रही है भेजे में,
वक्रता, सरलता की रचती परिभाषा है।
जो देश विभाजन के मंथन के विष निकला,
वह कुम्भ राष्ट्र के नीलकंठ ने पान किया,
शासन का भस्मासुर अजमाता बार-बार,
जनता के शंकर ने कैसा वरदान दिया।
वेदों का स्वर गुंजायमान जिसके स्वर में,
जिसकी शंख ध्वनि गूँज रही है अम्बर में,
उस राष्ट्र-गिरा का रूप करो विदू्रप नहीं,
जलते अंगारे फिर न बिखेरो घर-घर में।