हिन्दू / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
ओ हिन्दू! उठ जाग-जाग किस गहरी निद्रा में सोता है?
सावधान होकर सुन अब क्यों रही-सही को भी खोता है?
तेरी जड़ता पर जग हँसता, फिर भी तू इतना भूला है।
खोकर अपनी शान भला बतला फिर किस मद में फूला है?
जुल्मों को सहता है कब से, घूँट विषैले तू पीता है।
धिक् है अपमानित होकर भी तू इस जगती में जीता है॥
अंग-भंग माता का तुझको रोम-रोम धिक्कार रहा है।
कितना दुःखित बहिनों का उर रोकर तुझे पुकार रहा है॥
राम-कृष्ण के अरे उपासक! ओ गीता अपनाने वाले।
तेरी गीता क्या कहती है इस पर भी कुछ ध्यान लगा ले॥
आतताइयों के अधर्म को तू चुपचाप सहे जाता है।
फिर भी अपने को इठला कर, हिन्दू आप कहे जाता है॥
जिस माँ की सुन्दर गोदी में तूने यह जीवन पाया है।
अरे पातकी! ध्यान उसी का आज हृदय से बिसराया है॥
देख इसी गोदी में आकर खेले थे श्री राम तुम्हारे।
जिनके बल से काँप उठे थे हिंसक क्रूर निशाचर सारे॥
रावण से योद्धा का मद भी जिनके सन्मुख चूर हुआ था।
एक उन्हीं से सुर-मानवगण सबका संकट दूर हुआ था॥
आज अनेकों अधम निशाचर निर्भय यों उत्पात मचाते।
तेरे होते तेरी माँ का अंग काट कर लहू बहाते॥
पाला मार गया शोणित को! क्यों तू मुर्दा बन कर बैठा?
ओ मदमाते शेर! आज तू क्यों छोटा-सा मन कर बैठा?
सुन कर एक दहाड़ तुम्हारी दिल ऋपुओं के धड़क उठेंगे।
प्रलय मचा देंगे जब ये भुजदण्ड तुम्हारे फड़क उठेंगे॥
तेरी नस-नस में पावनतम रक्त शिवाजी का बहता है।
राणा की सन्तान आप ही जब तू अपने को कहता है॥
फिर किसका भय? निर्भय होकर, हाथों में तलवार उठा ले।
त्याग भीरुता, पूर्ण वीरता की मानस में ज्योति जला ले॥
उथल-पुथल कर जगतीतल में, उठ अपने बल का परिचय दे।
अपने रण कौशल से हिन्दू! जगती से कर दूर अनय दे॥
दुष्टों के मस्तक विदीर्ण कर, रज में उनका मान मिला दे।
भारत माँ को सुख प्रदान कर, उसके तन की पीर नशा दे॥
फिर से मस्तक ऊँचा करके विजय-माल से कंठ सजा दे।
अखिल विश्व में सुयश-पताका तू स्वराष्ट्र की फिर फहरा दे॥
गूँज उठे फिर दिग्दिगन्त में, ‘मधुप’ यही मनमोहक नारा।
जय-जय हिन्दू धर्म जयति जय अखण्ड भारतवर्ष हमारा॥