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हिलते डुलते धब्बे / लाल्टू
Kavita Kosh से
कुहासे से लदी है सुबह
कारनामे सभी रात के छिप गए हैं
भारी नमी के धुँधलके में
सड़क पर साँय साँय बढ़ता चला है
हम जानते हैं कि यह एक आधुनिक शहर है
ऐसे में कोई चला समंदर में कश्ती सा
सुबह सुबह अखबार बाँटने
या कि दूधवाला है
या औरत जिसे चार घरों की मैल साफ करनी है
कुहासे को चीरते चले चले हैं
कोई नहीं देख पाता उन्हें
कुहासा जब नहीं भी होता है
हिलते डुलते धब्बे दिखते हैं दूर तक।