भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हुदूद का दाएरा / राशिद 'आज़र'
Kavita Kosh से
शजर हजर हूँ कि इंसाँ हूँ या सितारे हूँ
सभी हुदूद के इक दाएरे में रहते हैं
ये काएनात ज़मान ओ मकाँ की क़ैद में है
हर एक शय है उरूज ओ ज़वाल की पाबंद
हर एक मंज़िल-ए-आख़िर है मंज़िल-ए-अव्वल
जहाँ से इक नई मंज़िल की जुस्तुजू में सभी
हक़ीक़तों को तख़य्युल का रंग देते हैं
सफ़र में रूक नहीं सकते क़दम मुसाफ़िर के
ज़मीं भी घूमती है रास्ते भी चलते हैं
हर इक उफ़ुक़ पे ज़मीं आसमाँ से मिलती है
घड़ी चले न चले वक़्त तो गुज़रता है