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हुनर / असंगघोष

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पुकारने को
उनका नाम था मोड़ीराम
किन्तु हम आदरपूर्वक कहते थे मोड़ाबा
वे बड़े सवेरे उठ रोज सानते थे मिट्टी
उसका लौंदा बना
चाक पर रख गढ़ते थे
माटी के बर्तन
घड़े, मटके, चुकली और गमले भी
इन सब पर
गधे की छनी हुई लीद छिड़ककर
लकड़ी के चपटे हथौड़े से
आहिस्ता-आहिस्ता ठोंकते हुए
इन बर्तनों को दिन भर में देते थे
आकार
अपने बाड़े में।

अचानक मोड़ाबा नहीं रहे
उनके जाने के बाद
अब ढाबने की आवाज भी सुनाई नहीं देती
माटी के बर्तन अतीत की बात होते जा रहे हैं।
मोड़ाबा से उनका यह हुनर
कोई जीते जी उनसे सीखने तैयार नहीं हुआ था
कोई सीख भी लेता
तो इस सीखने मात्र से
अपना पेट कहाँ भर पाता
इसलिए उनका हुनर चला गया उनके साथ
ऐसे ही अपना हुनर
कई कारीगर ले गए अपने साथ
मेरे दादा भी बनाते थे
नागरा और सालमशाही जूतियाँ
चड़-मड़ की आवाज करती
इन जूतियों पर
जरी कसीदाकारी करती थी दादी
दोनों से उनका हुनर
नहीं सीखा किसी ने
जरूरत भी क्या थी सीखने की
जिससे एक जून की रोटी भी नसीब ना हो
ऐसा हुनर!
मोड़ाबा ने कभी अपनी बनाई साबुत मटकी
में पानी नहीं पिया
मेरे दादा ने कभी नहीं पहनी अपनी बनाई
नागरा जूतियाँ
मेरी माँ
मेरी ताई
मेरी दादी
मेरी बुआ
मेरी बहन
नागरा-सालमशाही जूतियों
के पंजों पर
कसीदाकारी करने तक
सीमित ही रहीं
कभी पहन नहीं पाईं सालमशाही
हम क्या करते सीख कर इस हुनर का
जो दो जून की रोटी भी ना दे सके
और चिपका है जात के साथ,
कमबख्त!