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हुस्न हो इश्‍क़ का ख़ू-गर मुझे रहने देते / राशिद 'आज़र'

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हुस्न हो इश्‍क़ का ख़ू-गर मुझे रहने देते
तुम हो मंज़र पस-ए-मंजर मुझे रहने देते

मुझ से तहज़ीब-ए-रिया-कार की तज़ईं क्यूँ की
ना-तराशीदा था पत्थर मुझे रहने देते

मैं ने कब चाहा कि क़ैद-ए-दर-ओ-दीवार मिले
मैं तो आवारा हूँ बे-घर मुझे रहने देते

वक़्त ओ हालात से ख़्वाहिश थी फ़क़त चंद ही रोज़
क़ैद-ए-लम्हात से बाहर मुझे रहने देते

मैं ने असनाम तराशे तो बिगाड़ा क्या था
तुम बराहीम थे ‘आज़र’ मुझे रहने देते