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हे अमलतास / सुनीता शानू
Kavita Kosh से
तपती धरती करे पुकार
गर्म लू के थपेड़ों से
मानव मन भी रहा काँप
ऐसे में निर्विकार खड़े तुम
हे अमलतास...
मनमोहक ये पुष्प-गुच्छ तुम्हारे
दे रहे संदेश जग में
जब तपता स्वर्ण अंगारों में
और निखरता रंग
सोने-सी चमक बिखेर रहे तुम
.हे अमलतास...
गंध-हीन पुष्प पाकर भी
रहते सदा मुसकाते
एक समूह में देखो कैसे
गजरे से सज जाते
रहते सदा खिले-खिले तुम
हे अमलतास...
हुए श्रम से बेहाल पथिक
छाँव तुम्हारी पाएँ
पंछी भी तनिक सुस्ताने
शरण तुम्हारी आएं
कष्ट सहकर राहत देते
हे अमलतास...
बचपन से हम संग-संग खेले
जवाँ हुए है साथ-साथ
झर-झर झरते पीले पत्तों सा
छोड़ न देना मेरा हाथ
स्वर्णिम क्षण के साथी तुम
हे अमलतास...