भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हे दुनिया आधी / संजय पुरोहित
Kavita Kosh से
हे दुनिया आधी
कद बणसी थूं धणी
मिनख री
अरड़ावै करड़ावै
अर कैवे है खुद नै ईज
थारौ धणी
बोल बावळी !
लाज सरम रौ ठेकौ
कीं छूट्यो है थारै ईज नांव
परम्परा रै जंजीरां में
कद तांई रेवैली उळझ्योड़ी
कद मंढैला थूं साम्हीं
कद करैली थूं धमक
कद तांई रैवेली
दबयोड़ी पगथड़्यां हेठै
उण जीव रै
जण्यो थूं खुद
थारो ठाडो रगत
क्यूं नीं उबळै
क्यूं नीं उतार नाखै
गाभा गोलापै रा
क्यूं नीं मांडे
थारै खिमता सूं
नूवो चितराम
नाख उखाड़ खिण्डा दै
परम्परा री कूड़ी भसम
अर छाप थारी
अणमिट घड़त
जुग रै भाठै
थारै अर थारी
आधी दुनिया खातर
हे दुनिया आधी !
मून क्यूं है
बोल तो सरी !!