भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो / राघव शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मार्ग के अवरोध से तुम क्यों दुखित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो

सोंचते हो मार्ग में चलते हुए क्या
देखते हो सूर्य को ढलते हुए क्या
क्यों निराशा की निशा से तुम ग्रसित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो

खंडहरों के शेष कुछ अवशेष जगते
वृक्ष सूखे मौन से नरवेश लगते
व्यर्थ ही संदेह से होते भ्रमित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो

क्यों पुनः निस्तब्धता को गेह करते
तुम तो अपने लक्ष्य से हो स्नेह करते
मेघ तुम आह्लाद के बहते सरित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो

आँधियों का शोर कुछ बतला रहा है
तू नहीं कोई कमल कुम्हला रहा है
तुम नहीं हिमपिण्ड जो प्रतिक्षण गलित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो

चित्त की शंका अभी है व्यर्थ सारी
है अपरिमित शक्ति चिन्हित जो तुम्हारी
बीज निष्ठा का हृदय में अंकुरित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो

लक्ष्य से क्यों दूर होते जा रहे हो
क्यों भटक कर व्यर्थ गोते खा रहे हो
तुम स्वयं ही स्वयं के द्वारा विजित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो

मार्ग में बढ़ना सदा है काज तेरा
राह में जो रुक गया होगा अँधेरा
तुम स्वयं विश्वास दीपक से ज्वलित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो

देख तेरे पास साहस का पिटारा
धीरता ही वीरता का है इशारा
तुम सदा उस ईश के द्वारा रचित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो

ये निशा का आगमन व्यवहारगत है
भास्कर का फिर उदय भी शाश्वत है
फिर विजय भी स्वर्ण अक्षर में लिखित हो
हे पथिक तुम क्यों व्यथित हो क्यों व्यथित हो