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हे महाजीवन / यादवेन्द्र पाण्डेय / सुकान्त भट्टाचार्य

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हे महाजीवन, अब और काव्य नहीं ।
इस बार कठिन, कठोर गद्य ले आओ ।
पद्य-लालित्य झंकार मिट जाए।
गद्य की कठोर हथौड़ी को आज पीटो !
कविता की स्निग्धता का प्रयोजन नहीं —
कविता आज हमने तुम्हें छुट्टी दी
भूख के राज्य में पृथ्वी गद्यमय है ।
पूर्णिमा का चाँद जैसे जली हुई रोटी ।
  
मूल बंगला से अनुवाद : यादवेन्द्र पाण्डेय