हे मेरे स्वदेश! / रामधारी सिंह "दिनकर"
छिप जाऊँ कहाँ तुम्हें लेकर?
इस विष का क्या उपचार करूँ?
प्यारे स्वदेश! खाली आऊँ?
या हाथों में तलवार धरूँ?
पर, हाय, गीत के खड्ग!
धार उनकी भी आज नहीं चलती,
जानती जहर का जो उतार,
मुझ में वह शिखा नहीं जलती।
विश्वास काँपता है रह-रह,
चेतना न थिर रह पाती है!
लपटों में सपनों को समेट
यह वायु उड़ाये जाती है।
चीखूँ किस का ले नाम? कहीं
अपना कोई तो पास नहीं;
धरती यह आज नहीं अपनी,
अपना लगता आकाश नहीं।
बाहर है धुँआ कराल, गरल का
भीतर स्रोत उबलता है,
यह हविस् नहीं, है विघ्न-पिण्ड
जो आज कुण्ड में जलता है।
भीतर-बाहर, सब ठौर गरल,
देवता! कहाँ ले जाऊँ मैं?
इस पूति-गन्ध, इस कुटिल दाह
से तुम को कहाँ छिपाऊँ मैं?
यह विकट त्रास! यह कोलाहल!
इस वन से मन उकताता है;
भेड़िये ठठाकर हँसते हैं,
मनु का बेटा चिल्लाता है।
यह लपट! और यह दाह! अरे!
क्या अमृत नहीं कुछ बाकी है?
भारत पुकारता है, गंगाजल
क्या न कहीं कुछ बाकी है?
देवता तुम्हारा मरता है,
हो कहाँ ध्यान करनेवालो?
इस मन्दिर की हर ईंट-तले
अपना शोणित धरनेवालो!
छप्पर को फाड़ धुआँ निकला,
जल सींचो, सुधा निकट लाओ!
किस्मत स्वदेश की जलती है,
दौड़ो! दौड़ो! आओ! आओ!
नारी-नर जलते साथ, हाय!
जलते हैं मांस-रुधिर अपने;
जलती है वर्षों की उमंग,
जलते हैं सदियों के सपने!
ओ बदनसीब! इस ज्वाला में
आदर्श तुम्हारा जलता है,
समझायें कैसे तुम्हें कि
भारतवर्ष तुम्हारा जलता है?
जलते हैं हिन्दू-मुसलमान
भारत की आँखें जलती हैं,
आनेवाली आजादी की,
लो! दोनों पाँखें जलती हैं।
ये छुरे नहीं चलते, छिदती
जाती स्वदेश की छाती है,
लाठी खाकर भारतमाता
बेहोश हुई-सी जाती है।
चाहो तो डालो मार इसे,
पर, याद रहे, पछताओगे;
जो आज लड़ाई हार गये,
फिर जीत न उसको पाओगे।
आदर्श अगर जल खाक हुआ,
कुछ भी न शेष रह पायेगा;
मन्दिर के पास पहुँच कर भी
भारत खाली फिर जायेगा।
हिलती है पाँवों तले धरा?
तो थामो, इसको अचल करो,
आकाश नाचता है सम्मुख?
दृग मे त्राटक-साधना भरो।
साँसों से बाँधो महाकाश,
मारुतपति नाम तुम्हारा है;
नाचती मही को थिर करना
योगेश्वर! काम तुम्हारा है।
धीरज धर! धीरज! महासिन्धु!
मत वेग खोल अपने बल का;
सह कौन सकेगा तेज, कहीं
विस्फोट हुआ बड़वानल का?
नगराज! कहीं तू डोल उठा,
फिर कौन अचल रह पायेगा?
धरती ही नहीं, खमण्डल भी
यह दो टुकड़े हो जायेगा।
सच है, गिरती जब गाज कठिन,
भूधर का उर फट जाता है,
जब चक्र घूमता है, मस्तक
शिशुपालों का कट जाता है।
सच है, जल उठते महल,
बिखेरे जब अंगारे जाते हैं;
औ’ मचकर रहता कुरुक्षेत्र
जब चीर उतारे जाते हैं।
सम्मुख है राजसभा लेकिन,
प्रस्ताव अभी तक बाकी है;
केशव को लगना, स्यात्,
आखिरी घाव अभी तक बाकी है।
आदर्श दुहाई देता है,
धीरज का बाँध नहीं टूटे।
आदर्श दुहाई देता है,
धन्वा से वाण नहीं छूटे।
सपने जल जायें,
सावधान! ऐसी कोई भी बात न हो,
आदर्श दुहाई देता है,
उसके तन पर आघात न हो।
आदर्श माँगता मुक्त पंथ,
वह कोलाहल में जायेगा;
लपटों से घिरे महल में से
जीवित स्वदेश को लायेगा।
विश्वासी बन तुम खड़े रहो,
कंचन की आज समीक्षा है;
यह और किसी की नहीं, स्वयं
सीता की अग्नि-परीक्षा है।
दुनिया भी देखे अंधकार की
कैसी फौज उमड़ती है!
औ एक अकेली किरण
व्यूह में जाकर कैसे लड़ती है।**
रचनाकाल: १९४६
- नोआखाली और बिहार के दंगे के समय लिखित।