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है इन्द्र-धनुष दृग के आगे / विमल राजस्थानी

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पचपनवें जन्म-दिवस पर

मेरा कवि-पिक मन-मधुवन में रह-रहकर टेर लगाता है
‘चौवन’ तक बचपन रहता है, ‘पचपन’ में यौवन आता है

झुनझुना थमाकर हाथों में
बहला न सकेगी अब दुनिया
‘बुइयों’ का भय दिखला-दिखला
दहला न सकेगी अब दुनिया
ऊखल में बँध-बँध जाने की बेला बीती, अब तो मेरे-
मन का पंछी उड़ते-उड़ते शत-शत योजन उड़ जाता है

गुड्डे-गुड्डी का खेल न अब-
मेरे मन को भरमायेगा
मिट्टी के बने घरौंदों में-
मन नहीं उलझ अब पायेगा

नाथे हैं नाग कई, कालीदह में कूदा हूँ कई बार
मथ-मथ डालूँ मैं इसीलिये सागर पद-तल दुलराता है

वृन्द वन की छवि-कुंज गली-
कोसों पीछे को छूटी है
अब आकर्षण का केन्द्र नहीं-
रह पायी वीर वहूटी है

सच्चा सुख मिलता है दु्रपदा का चीर अछोर बनाने में
रथ वाह किसी अर्जुन का बनने को युग-धर्म बुलाता है
बचपन की आँख-मिचौंनी में-
हैं धोखे कई बार खाये
यौवन की खुली-धुली आँखों-
नैसर्गिक सपने मँडराये
रेशमी तन्तु के पिंजरे से अब मुक्त विहग मेरे मन का-
चढ़ चन्द्र-किरण के झूले पर राका से रास रचाता है

बचपन का भोलापन भूला
माया-नगरी पीछे छूटी
झूठी विष-भरी हँसी की वे-
छल-छùी हथकड़ियाँ टूटीं
घूँघट के भीतर झाँक कलंकित चन्द्र कई देखे मैंने
अब निष्कलंक चन्दा से ही बस कवि-जीवन का नाता है

है इन्द्र-धनुष दृग के आगे
उड़-उड़ मन का पंछी भागे
अगवानी में दिन-रैन विकल
सूरज जागे, चन्दा जागे
सातों स्वर्गों के द्वार खुले, पीयूष-वृष्टि से प्राण धुले
कवि प्राण-वेणु पर मन्द्र-मधुर नित अनहद नाद बजाता है

-धनतेरस
31.10.1975