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है उजालों के सिलसिले हर-सू / द्विजेन्द्र 'द्विज'
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द्विजेन्द्र द्विज
हैं उजालों के सिलसिले हर-सू
‘दीप खुशियों के जल उठे हर-सू’
आँगन-आँगन में अल्पनाएँ हैं
आस के फूल खिल गये हर-सू
द्वार- आँगन हैं दीपमालाएँ
कहकशाँ-सी दिखाई दे हर सू
जैसे लौटे थे राम अयोध्या में
आज वैसा ही कुछ लगे हर-सू
जिनकी परदेस में है दीवाली
उनको अपना ही घर दिखे हर-सू
मुँह छिपाता फिरे है सन्नाटा
हैं पटाख़ों के क़हक़हे हर-सू
कौन गुज़रा है दिल की गलियों से
हैं चिराग़ों के क़ाफ़िले हर-सू
क्यों न हो आज नूर की बरखा
जब इबादत में हैं दिये हर-सू
काश हो ज़िन्दगी भी दीवाली
नूर की इक नदी बहे हर सू