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हैलो / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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पुष्पहार की तरह पड़ा ग्रीवा में
झूलता वक्ष पर
अतिरिक्त दृष्टि का एक जोड़ा
दूर या पास
सब-कुछ धुँधला-धँुधला
जैसे फँसा हो
कोई कतरा आँसू
अकेलापन फैला खिचड़ी बालों में
उदासी, छूट जाने की
एक समानांतर संसार
हवा और अपने बीच
फँसी दीवार को धकेलते हुए
थके कदमों से
जा रहा था वो
भंग होता है अपना एकांत
फिर भी
आवाज मारे बगैर नहीं रह पाता
दूरी बढ़ा देती है अपनापन
अपने-अपने दायरों को
खींचते अपनी चाहतों के हिसाब से
आवाज की लहरें
टकराती हुई
मोड़ देती हैं कदम
सामने वही जा रहा था
होता था बगलगीर चौबीसों घंटों का
इस तरह से मिलने
हाल-चाल पूछने के अलावा
क्या बचा है? मित्र!