होगा कब वह सुदिन समय शुभ / हनुमानप्रसाद पोद्दार
होगा कब वह सुदिन समय शुभ, मायावी मन बनकर दीन।
मोहमुक्त हो, हो जायेगा पावन प्रभु-चरणोंमें लीन॥
कब जगकी झूठी बातोंसे, हो जावेगी घृणा इसे।
कब समझेगा उसे भयानक, मान रहा रमणीय जिसे॥
कब गुरु-चरणोंकी रजको यह निज मस्तकपर धारेगा।
काम-क्रएध-लोभादि वैरियोंको, कब हठसे मारेगा॥
पुण्यभूमि ऋषि-सेवितमें कब होगा इसका निर्जन-वास।
गङ्गा की पुनीत धारा से कब सब अघका होगा नास॥
कब छोड़ेगी सबल इन्द्रियाँ अपने विषयोंमें रमना।
कब सीखेंगी उलटी आकर अन्तरमें उसके जमना॥
कब साधनके प्रखर तेजसे सारा तम मिट जायेगा।
कब मन विषय-विमुख हो हरिकी विमल भक्तिको पायेगा॥
धन-जन-पदकी प्रबल लालसा कष्टस्न्मयी कब छूटेगी।
मान-बड़ाई, ‘मैं-मेरे’-की फाँसी कब यह टूटेगी॥
कब यह मोह-स्वप्न छूटेगा, कब प्रपचका होगा बाध।
पर-वैराग्य प्रकट कब होगा, कब सुख होगा इसे अगाध॥
कब भव-भयके कारण मिथ्या अहंकारका होगा नास।
कब सच्चा स्वरूप दीखेगा, छूट जायगा देहाध्यास॥
कब सबके आधार एक भूमा-सुखका मुख दीखेगा।
कब यह सब भेदोंमें नित्य अभेद देखना सीखेगा॥
कब प्रतिबिब बिब होगा, कब नहीं रहेगा चित-आभास।
निजानन्द, निर्मल अज अव्ययमें कब होगा नित्य निवास॥