होगा यह होगा एक बार ! / पुरुषोत्तम प्रतीक
यह सागर , वह पर्वताकार
हैं एक जाति के दो प्रकार ।
धरती का ’यह’. धरती का ’वह’, ’यह’ के बल पर ’वह’ हरा-भरा
जीवन है ’यह’ का ’वह’ लेकिन, रहता नीचे कुछ दबा - डरा
छल-छद्म बुद्धि-कौशल का बल, पर्वत अम्बर को चूम रहा
धरती माँ को ’वह’ भार बना, बस, खड़ा-खड़ा ही घूम रहा
’है’ खड़ा हुआ लेकिन फिर भी करता परिवर्तन का विरोध
परिवर्तन तक, समवर्द्धन तक, पत्थर का पत्थर काल - बोध
पत्थर-पत्थर सब कुछ पत्थर, पत्थर का दिल पत्थर छाती
पर्वत का हर रिश्ता पत्थर, पत्थर बाबा, पत्थर नाती
साकार हुआ यों अहँकार !
सागर के सीने में झाँको, इसके सीने में सागर है
सागर के भीतर सागर है, फिर सागर है, फिर सागर है
सागर की अपनी दुनिया है, सागर की दुनिया सागर है
इसकी दुनिया में जीवन है, इसकी दुनिया में पानी है
इसकी दुनिया में ज्वाला है, है क्या - क्या एक कहानी है
इसमें बचपन है, यौवन है, इसमें पन है, फन है अपना
इसके कर हैं, पग है, मन है, इसका अपना सबका सपना
है यह धरती माँ का दुलार !
पर्वत के सीने का पत्थर क्या जाने सागर के मन की
सागर ने ख़ुद को मथा सदा, अब बारी पर्वत-मन्थन की
पर्वत कब पहुँचा सागर तक, सागर पर्वत तक पहुँचेगा
पहुँचेगा सूरज सँग लिए, चढ़ वायु - अश्व पर धमकेगा
होगा यूँ पर्वत का मन्थन, मन्थन सागर के हाथों से
पत्थर - पत्थर मिट्टी - मिट्टी होगा होगा आघातों से
मोती - मूँगा, मछली - सीपी, ये रत्न नहीं हथियार बनें
पर्वत का पर्वत रह पाना मुश्किल हो, ऐसा तार बनें
होगा सब होगा एक - सार !
जो क्षमता रखे डुबाने की, ख़ुद दुख में डूबेगा कब तक
माना सुख-दुख की उम्र एक, फिर भी सुख है ज़्यादा घातक
सागर का दुख पर्वत का सुख, गहराया सागर जीने में
पर्वत भूला कितने पर्वत हैं, सागर के भी सीने में
भीतर के पर्वत उछलें तो बाहर के पर्वत डूबेंगे
तरु, झाड़ी, बेलों के पत्ते, पर्वत का साथ नहीं देंगे
उस दिन सड़कें नदियाँ होंगी, नदियाँ होंगी सड़कें उस दिन
पानी भी बोलेगा पानी, पानी - पानी होगा उस दिन
होंगे झरने झरनों में, पर होगा अपूर्वतम शँखनाद
झाड़ी से वृक्षों तक सब में, दहकेगी केवल मुक्ति आग
होगा यह होगा एक बार !