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होली : रंग और दिशाएँ / शमशेर बहादुर सिंह

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[एक एब्‍सट्रैक्‍ट पेंटिंग]

जँगले जालियाँ,
स्‍तंभ
धूप के, संगमर्मर के,
ठोस तम के।

कँटीले तार हैं
गुलाब बाड़ियाँ।

दूर से आती हुई
एक चौपड़ की सड़क
अंतस् में
खोयी जा रही।
धूप केसर आरसी
...बाँहें।
आँखें अनझिप
खुलीं
वक्ष में।
स्‍तन
पुलक बन
उठते और
मुँदते।
पीले चाँद
खिड़कियाँ
आत्‍मा की।

गुलाल:
धूल में
फैली
सुबहें।

मुख:
सूर्य के टुकड़े
सघन घन में खुले-से,
या ढके
मौन,
अथवा
प्रखर
किरणों से।

जल
आईना।
सड़कें
विविध वर्ण:
बहुत गहरी।

पाट चारों ओर
दर्पण-
समय के अगणित चरण को।
घूमता जाता हुआ-सा कहीं, चारों ओर
वह

दिशाओं का हमारा
अनन्‍त
दर्पण।


2

चौखटे
द्वार
खिड़कियाँ:
सघन
पर्दे
गगन के-से:
हमीं हैं वो
हिल रहे हैं
एक विस्‍मय से:
अलग
हर एक
अपने आप:
(हँस रहे हैं
चौखटे द्वार
खिड़कियाँ जँगले
हम आप।)
केश
लहरते हैं दूर तक
हवा में:
थिरकती है रात:
हम खो गये हैं
अलग-अलग
हरेक।


3

कई धाराएँ
खड़ी हैं स्‍तंभवत्
गति में :
छुआ उनको,
गये।


कई दृश्‍य
मूर्त द्वापर
और सतयुग
झाँकते हैं हमें
मध्‍य युग से
खिलखिलाकर
माँगते हैं हमें
हमने सर निकाला खि‍ड़कियों से
और हम
गये।

सौंदर्य
प्रकाश है।

पर्व
प्रकाश है
अपना।
हम मिल नहीं सकते:
मिले कि
खोये गये।
आँच हैं रंग:
तोड़ना उनका
बुझाना है
कहीं अपनी चेतना को।
लपट
फूल हैं,
कोमल
बर्फ से:
हृदय से उनको लगाना
सींझ देना है
वसंत बयार को
साँस में:
वो हृदय हैं स्‍वयं।

X X

एक ही ऋतु हम
जी सकेंगे,
एक ही सिल बर्फ की
धो सकेंगे
प्राण अपने।
(कौन कहता है?)

यहीं सब कुछ है।
इसी ऋतु में
इसी युग में
इसी
हम
में।