होली रोॅ आसरा / नवीन ठाकुर 'संधि'
आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली
खुलेॅ लागलै देखोॅ सब्भै रोॅ बोली।
कत्तेॅ हम्में आसरा देखबो,ॅ कत्तें हम्में सहबो,ॅ
आबै छै अंगड़ाई केकरा हम्में कहबोॅ।
आँखी में नीन कहाँ, सपना देखैं छीं सांझै विहान,
आँखी में घूरी-घूरी नाँचै छै, आबै रोॅ नै ठिकान।
अगलोॅ-बगलोॅ रोॅ सब्भै करै छै ठिठोली,
आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली।
लागै छै डाक तार सब्भे होय गेलै बोॅन,
याद करी केॅ मोबाइलोॅ सें करोॅ फोन।
वाँही तोहें रंगों में रंगै छो,ॅ बुझै छीं तोरोॅ मोंन,
लागै छै तोरा सें कोय छिनै छै हमरोॅ धोॅन।
रोज हँसी उड़ाय छै यहाँ हमरी सहेली,
आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली।
हरदम खनकै छै चूड़ी आरो पायल,
तरसाय केॅ जवानी में बनाय छोॅ घायल।
खोजै छौं ऑखि रोॅ काजरें आरो कानोॅ रोॅ बाली,
आयतौं पाहून ‘‘संधि’’ खेलतोॅ रंग घोली-घोली।