" माया" श्रृंखला -१ /रमा द्विवेदी
१-माया के माया-महल में,
सत्य भी छुप जाते हैं।
दुर्योधन की एक फिसलन ,
कुरुक्षेत्र भी रच जाते हैं॥
२-माया के ही इक हास्य ने,
महाभारत रच दिया।
दुर्योधन के अति-अहं ने,
कोहराम चहुदिशि कर दिया॥
३-माया का यह प्रतिकार था,
यह कैसा अत्याचार था?
मूक बन बैठे रहे सब,
बस एक चीत्कार था॥
४-हिल गया शिव का सिंहासन,
कृष्ण दौडे आये थे।
सृष्टिकर्ता ने आँख खोली,
चीख सुन घबराये थे ॥
५-कृष्णा नाम पड़ गया तब ,
प्यारी सखी थी कृष्ण की।
उसनें कर दी थी समर्पित,
अपनी सारी भक्ति भी॥
६-भीष्म की भीषम प्रतिज्ञा,
सर झुकाए रह गई।
आचार्यों की आदर्श-शिक्षा,
वारि बन कर बह गई||
७-देख सकती थी नहीं,गांधारी,
अपनों के बहते रक्त को।
बांध ली आँखों में पट्टी,
तब जी सकी इस सत्य को॥
८-पांच पति भी कर सके ना,
रक्षा जब सम्मान की।
द्रौपदी ने केश खोले,
रक्त की तब मांग की॥
९-मार कर दु:शासन को,
जब रक्त लेकर आओगे।
कर मैं दूँगी तब क्षमा,
सच्चे पति कहलाओगे॥
१०-भीम ने तब प्रण किया,
पूरा करूँगा मैं संकल्प को।
दु:शासन की चीर छाती,
लाऊँगा उसके रक्त को॥
११-कृष्णा के कारण ही तो,
कृष्ण सारथी बन गए थे।
कृष्णा के प्रतिशोध में,
हरदम ही उसके साथ थे॥
१२-कौरवों की शक्ति और-
सामर्थ्य भी कुछ कम न थी।
किन्तु बस इक ही कमी थी,
कृष्ण से वह विमुख थी॥
१३-धृतराष्ट्र की धृष्टता की,
क्या सज़ा मिल पाई थी?
शकुनी की चालाकियाँ भी,
वंशज बचा न पाईं थी॥
१४-कृष्ण ने विजयी बनाया,
कृष्णा के संकल्प को।
हार जाते पांडव भी,
अगर न होते साथ वो॥