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'एक क्षण में . . . .' / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
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मैं, अपनी 'व्यथा' मौन रख लूँ
मैं, अपना चित्त विलोम रख लूँ
प्रतिद्वंद में,
अग्निकुण्ड में,
सारी आकांक्षाएँ, सारी वेदनाएँ
एक क्षण में फूँक दूँ तो अच्छा हो
लक्षण भी जब विलक्षण रूप भरने लगे,
पूत को जब मोह माया जकड़ने लगे
अंकुश जब निरंकुश हो जाए
देशांतर जब विषुवत हो जाए
तब विरह की धारा में,
अग्नि की ज्वाला में,
सारी प्रतिभाएँ, सारी प्रतिमाएँ
एक क्षण में फूँक दूँ तो अच्छा हो
हिमस्खलन दूर तक फैला हुआ है
लगता है, 'चन्द्रमा' मैला हुआ है
समय विस्मय बोधी की तरह,
प्रेम, मोहे लूट गया जोगी की तरह
प्रतिबद्धता में,
प्रतिद्वंद्विता में,
सारी चिन्ताएँ, सारी उत्तेजनाएँ
एक क्षण में फूँक दूँ तो अच्छा हो ।